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आरक्षण की आग

 मेरी अभिव्यक्ति
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1882 में देश में सबसे पहले सरकारी नौकरियों के क्षेत्र में जाती आधारित आरक्षण की आवाज़ महात्मा ज्योति राव फूले ने हंटर कमीसन के सामने उठाई थी। आगे चल के 1902 में सबसे पहले कोल्हापुर राज्य ने पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों के क्षेत्र में 50 फीसदी के आरक्षण को लागू कर दिया।
शुरुआत से ही आरक्षण का उद्देशय किसी भी तबके को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने का नहीं था बल्कि इसका उद्देश्य मात्र इतना था कि सभी लोगों को सामाजिक रूप से सशक्त किया जाए, सरकारी नौकरियों के क्षेत्र में सभी को सामान अवसर मिले। आगे चल के संविधान में पिछड़ी और अतिपिछड़ी जातियों को सामाजिक रूप से सशक्त करने के लिए आरक्षण का का प्रावधान किया गया पर शर्त थी कि इसे केवल 10 वर्षों के लिए लागू किया जायेगा और तब भी स्थिति नहीं सुधरी तो अगले और 10 वर्षों के लिए बढ़ाया जायेगा, पर सत्ता के शिर्ष गद्दीधारियों के गद्दी का मोह ही कहेंगे कि आरक्षण के समय सिमा के लगभग 60 वर्षों बाद भी आरक्षण खत्म करने की हिम्मत कोई नहीं कर पाया।
आरक्षण का बुखार इस कदर लोगों के बिच फैला है कि देश के अलग अलग हिस्सों से अलग अलग जातियों द्वारा आरक्षण के लिए आवाज़ उठती रही है। कभी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में जाट आरक्षण के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं, तो कभी महाराष्ट्र में मराठा और अभी हाल में गुजरात में पटेल जाती के लोगों द्वारा आरक्षण के मांग ने इस पूरे मामले को और ज्यादा गरमा दिया है। पटेल जाती के लोग, जो की गुजरात में आर्थिक एवं सामाजिक रूप से काफी सशक्त हैं। गुजरात की राजनीति में भी सक्रिय और तो और प्रदेश के औद्योगिक जगत में भी इनकी अच्छी पैठ है। ऐसे में सवाल उठना लाज़मी है कि किन मुद्दों, किन कारणों से सरकार इन्हें आरक्षण का लॉलीपॉप थमाए। समय समय पर अलग अलग जाती अथवा अलग अलग तबके के लोगों का सुर आरक्षण के मांग में बुलंद होते देखा गया है, पर सवाल है कि क्या मात्र आरक्षण दे देने भर से समाज का भला होना संभव है।
आज जरुरत आ पड़ी है कि वर्षों से चली आ रही आरक्षण व्यवस्था की एक नए सिरे से समीक्षा की जाये। इस बात का आंकलन करना बहुत जरुरी है कि जिन उद्देश्यों के लिए आरक्षण की शुरुआत की गयी क्या वह पूरा हो रहा है।
आज के परिपेक्ष में अगर गौर करें तो पाएंगे कि आरक्षण किसी ख़ास जाती के लोगों की जरुरत नहीं बल्कि सभी जाती में कुछ ऐसे तबके है जिन्हें इसकी जरुरत है। ऐसे में राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है, क्योंकि अगर वे इसमें सुधार के लिए आगे नहीं आते हैं तो समाज का नुकसान होगा। आज समय की यही मांग है कि आरक्षण की गहन समीक्षा हो और इसमें सुधार किया जाए जिससे सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को इस सुविधा का लाभ मिल सके। इसमें यह भी स्पष्ट होना चाहिए की इस व्यवस्था का उद्देश्य निर्धन एवं वंचित तबकों को मुख्यधारा में लाने का है न कि किसी विशेष जाति को फायदा पहुँचाने का।

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