Menu
blogid : 23180 postid : 1111155

जाति भूख की

 मेरी अभिव्यक्ति
मेरी अभिव्यक्ति
  • 18 Posts
  • 0 Comment

क्या खाया जाए, क्या नहीं खाया जाए इस बात को ले कर के लोग कितने संवेदनशील हैं, इस बात का अंदाज़ा पिछले दिनों में घटी घटनाओं से लगाया जा सकता है। एक तरफ खाने का मेन्यू राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना हुआ है, वही दूसरी तरफ उस आबादी पर नज़र फेरना भी कोई मुनासिब नहीं समझ रहा जिसकी धर्म और जाति भूख है, जो अपने पेट की आग को शांत करने के लिए अपने बच्चों को भी गिरवी रखने को मजबूर है। इस नज़रन्दाज़ी का एक कारण ये है कि, भूख की राजनीति हो नहीं सकती और ना ही इससे राजनेताओं के वोट बैंक को फायदा पहुँच सकता है।
पिछले कुछ दिनों में देश के कई हिस्सों से ऐसी हृदयविदारक घटनाएं देखने को मिली जिससे मानवता थर्रा जाए। मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के पिछड़े जिलों में शुमार ललितपुर के सकरा गाँव के कई किसानों ने दो वक़्त की रोटी के लिए अपने डेढ़ दर्जन बच्चों को राजस्थान के ऊंट व्यापारियों के पास गिरवी रख दिया है, जहाँ व्यापारी मासूमों से मनचाहा काम करा रहे हैं।
यह क्षेत्र पहली बार चर्चा में तब आया जब यहाँ 2003 में लोगों को घास की रोटी बना के खाते हुए देखा गया था। कहने को तो आज 12 वर्ष बीत गए पर वहां की स्थिति जस की तस बनी हुई है। आज दुबारा यह क्षेत्र उस वक़्त प्रकाश में आया जब दुनिया भर में देश की छवि को एक उभरते हुए शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में बनाने की कोशिश की जा रही है। खैर ऐसी घटनाएँ देश के अलग अलग भाग, जैसे उड़ीसा, बंगाल, पूर्वी बिहार और महाराष्ट्र से अमूमन देखने को मिल जाती हैं।
एक तरफ लोगों की ऐसी दुर्दशा सामने है, वही दूसरी तरफ ऐसी ख़बरें भी मिल जाती हैं कि ‘एफ.सी.आई के गोदामों में पर्याप्त जगह ना होने से गेंहू और चावल सड़ रहे हैं और फिर बाद में उन्हें नदियों में फेंक दिया गया।’ ये सरकारी महकमों के अपनी खोखली नीतियों पर अत्यधिक विश्वास ही है, जिससे उन्हें लगता है कि देश में कोई भूखा या ज़रूरतमंद नहीं है, सभी के घरों की कोठियां अनाज से लबालब है। जिसके बाद अनाजों को नदियों में फेंकने के अलावा कोई और चारा नहीं बचता है।
आंकड़ों को तव्वजो दें तो पता चलता है कि हर रोज़ देश की लगभग 23 करोड़ आबादी भूखे पेट नींद को गले लगाती है। हालांकि यह आबादी उन आंकड़ों से कही ज्यादा है, जिसे सरकार गरीबी रेखा से नीचे में गिनती है।
आज़ादी के 68 साल बाद भी ऐसी स्थिति देश में व्याप्त है तो यह जरुरी हो जा रहा है कि सरकार अपनी योजनाओं और उनके क्रियान्वयन की समीक्षा करे और जल्दी ही कोई हल निकाले। व्यक्ति की मूलभूत ज़रूरत रोटी, कपड़ा और मकान है। अगर सरकारी अमला लोगों के इन जरूरतों की पूर्ति नहीं कर पा रही तो आगे हवाई महल बनाने का कोई मतलब नहीं रह जाता है।

Tags:   

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh